किस्मत नही कर्म साथ देती है –
ये कहानी एक ऐसे छात्र की है जो बेहद ही गरीब परिवार से था, उसे दो वक्त की रोटी के लिए भी खुद ही कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। वो छात्र बेहद गरीब तो था, लेकिन खुद्दार भी बहुत था। वो अपनी स्कूल की फीस, किताबें सबकुछ अपनी कमाई से ही भरता था। चाहे उसके लिए उसे एक रात खाली पेट सोना ही क्यों ना पड़े। वो छात्र हमेशा कोई ना कोई काम करके स्कूल की फीस के लिए पैसे इकट्ठा किया करता था।
वो छात्र पढ़ाई में भी अच्छा था। छात्र की ईमानदारी और अच्छाई देख कर स्कूल के कुछ बच्चे उससे ईष्या करने लगे। एक बार उन बच्चों ने उस छात्र को चोरी के इल्जाम में फंसाने का सोचा। उन्होंने स्कूल के प्रिंसिपल से जाकर उस छात्र की शिकायत कर दी, कि वो हमेशा दूसरों के पैसे चुराता है। पेसे चुरा कर वो स्कूल की फीस भरता है और किताबें खरीदता है। बच्चों ने प्रिंसिपल से छात्र को उचित दंड देने के लिए कहा। प्रिंसिपल ने बच्चों से कहा कि वो इस बात की जांच करेंगे और दोषी पाए जाने पर उसे उचित दंड भी मिलेगा।
प्रिंसिपल ने छात्र के बारे में पता लगवाया तो उन्हें मालूम पड़ा कि वो छात्र स्कूल के बाद खाली समय में माली के यहां सिंचाई का काम करता है। उस काम से जो पेसे मिलते हैं. वो उससे अपने स्कूल की फीस भरता है और किताबें खरीदता है।
अगले दिन प्रिंसिपल ने उस बच्चे को सबके सामने बुलाया और उससे पूछा कि तुम्हें इतनी दिक्कत होती है तो तुम अपने स्कूल की फीस माफ क्यों नहीं करवाते।
छात्र ने उत्तर दिया – कि अगर मैं अपनी सहायता खुद कर सकता हूं, तो में खुद को बेबस क्यों समझू और फीस माफ क्यों करवाउं।
आखिर दूसरे बच्चों के माता-पिता भी तो मेहनत कर के ही फीस देते हैं, तो में भी मेहनत कर के ही अपनी फीस जमा करता हूं, इसमें गलत क्या है। वैसे भी आपने ही सिखाया है कि कर्म ही सबसे बड़ी पूजा है।’
छात्र की ये बातें सुनकर प्रिंसिपल का सिर भी गर्व में ऊंचा हो गया और दूसरे बच्चों को शर्मिंनदगी महसूस हुई।
जी हाँ, हम बात कर रहे है महान लेखक बंकिम चंद्र चट्टोपाछ्य जी की.बड़ा होकर ये छात्र सदानंद चट्टोपाध्याय के नाम से भी जाना जाने लगा। सदानंद चट्टोपध्याय को बंगाल के शिक्षा संगठन के डायरेक्टर का पद मिला था।
बंकिम चंद्र जी ने आगे बहुत ख्याति प्राप्त की और अनेक लेखनों में महारथ हासिल की
उनके अन्य उपन्यासों में दुर्गेशनंदिनी, मृणालिनी. इंदिरा, राधारानी, कृष्णकतिर दफ्तर, देवी चौधरानी और मोचीराम गौरेर जीवनचरित शामिल है। उनकी कविताएं ललिता ओ मानस नामक संग्रह में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म सामाजिक और समसामायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे। बंकिमचंद्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। बांग्ला में सिर्फ बंकिम और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएं हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती है।
लोकप्रियता के मामले में बंकिम और शरद और रवीन्द्रनाथ ठाकुर से भी आगे हैं। बंकिम बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनाकार थे। उनके कथा साहित्य के अधिकतर पात्र शहरी मध्यम वर्ग के लोग है इनके पात्र आधुनिक जीवन की त्रासदियों और प्राचीन काल की परंपराओं से जुड़ी दिक्कतों से साथ साथ जूते हैं। यह समस्या भारत भर के किसी भी प्रांत के शहरी मध्यम वर्ग के समक्ष आती है। लिहाजा मध्यम वर्ग का पाठक बंकिम के उपन्यासों में अपनी छवि देखता है।
कहानी का सार –
इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि हमेशा इंसान को अपने कर्मों पर विश्वास रखना चाहिए। सफलता पाने और आगे बढ़ने के लिए दूसरों पर निर्भर होने के बजाए खुद कड़ी मेहनत करनी चाहिए। मेहनती और ईमानदार व्यक्ति हमेशा बुलंदियों की ऊंचाईयों को छूता है।