दुश्मनों को सज़ा देने की एक तहज़ीब है मेरी मैं हाथ नहीं उठाता बस नज़रों से गिरा देता हूँ
बेवक़्त. बेवजह. बेहिसाब. मुस्कुरा देता हूँ आधे दुश्मनो को तो यूँ ही हरा देता हूँ
क्यों न ग़ुरूर करून मै अपने आप पे मुझे उसने चाहा है जिसके चाहने वाले हज़ार थे
अक्सर वही लोग उठाते हैं हम पर उँगलियाँ जिनकी हमें छूने की औकात नहीं होती